दो भारतीय विद्वानों को अमेरिका में कथित ‘आतंकी संबंधों’ के आरोप में निर्वासन का सामना करना पड़ा, लेकिन भारतीय सरकार को इसकी जानकारी सिर्फ मीडिया से मिली—न कोई दूतावास सहायता, न कोई कूटनीतिक हस्तक्षेप।
क्या ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ सिर्फ भाषणों तक सीमित है, जबकि विदेशों में बसे भारतीयों को खुद ही अपनी लड़ाई लड़नी पड़ती है?